नमकीन ख्वाब
संजीदा का निकाह हो गया.
खुशियों से रुक्सत हुई
एक नयी ज़िन्दगी की तलाश में.
मेहँदी की ताज़ी खुशबू
हवा में घुलती जाती,
सपनो की पालकी में सवार,
दूर किसी अनजान शेहेर में
गाँव से दूर,
पीपल की छाओं से दूर
अम्मी की प्यार से परे
भाई के शरारतों से दूर!
एक बहोत बड़ी शेहेर में,
बस, ट्रेन और तूफानों से तेज़ गाडिओं के बीच,
बम्बई आ पौछी, संजीदा.
लोगों के भीर में,
आपने ख्वाबों को ढूँढती,
एक लड़की.
शरमाई सी, नयी कदम
नया जीवन की तलाश,
किसी पराये घर को, आपना बनाने का ख्वाब!
खुली आस्मां, खुली साँसे
बंध दरवाज़े के बीच
एक ख्वाब, एक सपना,
दिल में छुपाइये.
"मुझे समुन्दर देखना है,"
संजीदा ने आपनी शौहर को कहा,
यह थी उसकी पहेली इल्तजा
"पहेले तुम माँ बन जाओ, फिर हम सब मिलके चलेंगे,"
घर की उम्बर्था को लांघे हुए
बर्षों बीत गए. संजीदा की अरमान,
बिखरे परे है, उन फर्शों पर
पिघलते हुए,
उस रात की तरह
अपने अरमानों की, मोमबत्ती की
सेंज की तरह!
काम तो आज भी वही है
नल से पानी भरना,
सुबह श्याम नमाज़ पड़ना,
शौहर के लिए नाश्ता बनाना,
सास, ससुर, देवर का ख्याल रखना,
बच्चों को सम्हालना.
गाँव की वो लड़की,
आज भी आपने सपनो को तलाश रही है!
शेहेर के खुली सोच से दूर, किसी शेहेर की गल्ली में.
घर तोह उससे मिल गया था,
चार दीवारों के बीच,
चार खिड़की, चार-पाई
और एक उम्बर्था.
लांघने की ताक़त
आज भी नहीं जुटा पाई!
बुरखे में, वोह लड़की जो आज
आप के नज़रों के सामने से गुज़र जाती,
सप्नों को आपने सिने में दबाये,
चार बच्चों की अम्मी,
संजीदा! आज भी आपनी ख़ुशीयों को
खोज रही है,
समुन्दर की घेराई, बिखेरती हुई लहरें,
सरख्ती हुई रेतियों की तस्वीर,
आज भी उसे देखना है.
घासलेट की कतार में,
बर्तन के ढेर में,
चूले की फूक में,
सब्जी की छौक में,
भूली नहीं वोह अपनी ख्वाबों को.
आज, बारिश के पानी को,
बाल्टी में जमा करके रखती है, संजीदा.
सब की नज़रों से छुपाके,
आपने पैरों पे, भरी हुई बाल्टी
को उलट देती है.
महसूस करती है
समुन्दर की लहरें, पानी की नमकीन छीटें!
दिल को चीर, संसार की डोर को चीर
चल पड़ी, तेज़, बहुत तेज़,
जहाँ कोई झूठे वादे नहीं है,
जहाँ कर्त्तव्य की बेरी नहीं है,
जहाँ संसार की पावंदी नहीं है,
जहाँ सिर्फ समुन्दर की सौन्दी खुशबू,
आखों को भिगोती है!
जहाँ सिर्फ खुला आस्मां,
चीखती हुई कहती है,
ख्वाबों की उड़ान.
संजीदा, आज भी जी लेती है,
सपनों में ही सही,
उम्बर्था लांघने की
हिम्मत जुटा लेती है!
- राम कमल मुख़र्जी
- Please pardon my grammatical errors. I am sure there are some. It's the thought, that I am trying to share, with whatever little Hindi I know.
Thanks.
भाई के शरारतों से दूर!
एक बहोत बड़ी शेहेर में,
बस, ट्रेन और तूफानों से तेज़ गाडिओं के बीच,
बम्बई आ पौछी, संजीदा.
लोगों के भीर में,
आपने ख्वाबों को ढूँढती,
एक लड़की.
शरमाई सी, नयी कदम
नया जीवन की तलाश,
किसी पराये घर को, आपना बनाने का ख्वाब!
खुली आस्मां, खुली साँसे
बंध दरवाज़े के बीच
छोटे छोटे स्वप्नों की मोमबत्ती
सजाई.एक ख्वाब, एक सपना,
दिल में छुपाइये.
"मुझे समुन्दर देखना है,"
संजीदा ने आपनी शौहर को कहा,
यह थी उसकी पहेली इल्तजा
"पहेले तुम माँ बन जाओ, फिर हम सब मिलके चलेंगे,"
दुल्हे का दिया हुआ वादा, झूठा वादा.
वादा पुरे नहीं हुए, घर की उम्बर्था को लांघे हुए
बर्षों बीत गए. संजीदा की अरमान,
बिखरे परे है, उन फर्शों पर
पिघलते हुए,
उस रात की तरह
अपने अरमानों की, मोमबत्ती की
सेंज की तरह!
फीके होते गए, ख्वाबों के रंग,
ठीक उसके हाथों की मेहँदी की तरह.
काम तो आज भी वही है
नल से पानी भरना,
सुबह श्याम नमाज़ पड़ना,
शौहर के लिए नाश्ता बनाना,
सास, ससुर, देवर का ख्याल रखना,
बच्चों को सम्हालना.
गाँव की वो लड़की,
आज भी आपने सपनो को तलाश रही है!
शेहेर के खुली सोच से दूर, किसी शेहेर की गल्ली में.
घर तोह उससे मिल गया था,
चार दीवारों के बीच,
चार खिड़की, चार-पाई
और एक उम्बर्था.
लांघने की ताक़त
आज भी नहीं जुटा पाई!
बुरखे में, वोह लड़की जो आज
आप के नज़रों के सामने से गुज़र जाती,
सप्नों को आपने सिने में दबाये,
चार बच्चों की अम्मी,
संजीदा! आज भी आपनी ख़ुशीयों को
खोज रही है,
समुन्दर की घेराई, बिखेरती हुई लहरें,
सरख्ती हुई रेतियों की तस्वीर,
आज भी उसे देखना है.
घासलेट की कतार में,
बर्तन के ढेर में,
चूले की फूक में,
सब्जी की छौक में,
भूली नहीं वोह अपनी ख्वाबों को.
आज, बारिश के पानी को,
बाल्टी में जमा करके रखती है, संजीदा.
सब की नज़रों से छुपाके,
आपने पैरों पे, भरी हुई बाल्टी
को उलट देती है.
महसूस करती है
समुन्दर की लहरें, पानी की नमकीन छीटें!
दिल को चीर, संसार की डोर को चीर
चल पड़ी, तेज़, बहुत तेज़,
जहाँ कोई झूठे वादे नहीं है,
जहाँ कर्त्तव्य की बेरी नहीं है,
जहाँ संसार की पावंदी नहीं है,
जहाँ सिर्फ समुन्दर की सौन्दी खुशबू,
आखों को भिगोती है!
जहाँ सिर्फ खुला आस्मां,
चीखती हुई कहती है,
ख्वाबों की उड़ान.
संजीदा, आज भी जी लेती है,
सपनों में ही सही,
उम्बर्था लांघने की
हिम्मत जुटा लेती है!
- राम कमल मुख़र्जी
- Please pardon my grammatical errors. I am sure there are some. It's the thought, that I am trying to share, with whatever little Hindi I know.
Thanks.